Saturday, April 24, 2010

सरकार बनाम नक्सलवाद


दंतेवाड़ा में हुई घटना के बाद ,नक्सलवाद के खात्मे के लिए बड़ी बड़ी संगोष्ठियाँ होने लगी है लोग अपने अपने विचार रख रहे हैं हर कोई इस समस्या का समाधान चाहता है कोई बातचीत का रास्ता अपनाना चाहता है तो कोई बन्दूक का ...बन्दूक बनाम बन्दूक शायद ही कोई स्थाई समाधान कर पाए ...बात बनाम बन्दूक तो वर्तमान परिस्थिति में नज़र नहीं आ रही है संभवतः हमें कोई और विकल्प इस समस्या के समाधान के लिए ढूंढना पड़ेगा

हमारे देश में सरकार हमेशा देर से जागती हैं..तब तक समस्या अपने पैर पसार चुकी होती है .और तब आनन -फानन में उसका समाधान ढूँढने की कोशिश होती है ...और जो विकल्प सामने आते है वो समस्या के निपटारे के लिए नाकाफी होते हैं तब तक छोटा सा घाव नासूर का रूप ले लेता है और अधिकतर लाईलाज हो जाता है कभी कभी बचाव के लिए के लिए अंगभंग करना पड़ता है .जो कि अंततः देश को ही विकलांग बना जाता है

ऐसा ही कुछ नक्सल मुद्दे पर हुआ है जब नक्सलवादी आन्दोलन शुरू हुआ था तब इसकी विचारधारा अलग थी और नेपाल में शुरू हुए माओवादी आन्दोलन से प्रेरणा लेकर भारतीय माओवादियों ने अपना आधार बढ़ाना शुरू कर दिया..देखते देखते माओवादियों ने नेपाल नरेश को राजशाही ख़त्म करने को मजबूर कर दिया और लोकतंत्रीय नेपाल में सत्ता पर काबिज़ हो गए ...इसी से प्रेरित होकर भारतीय माओवादियों ने अपनी पकड़ के क्षेत्रों में सामानांतर सरकारों का गठन कर दिया जो अब सरकारों के लिए गले की फाँस बन गयी है सरकार का ध्यान नेपाल में हो रहे सत्ता हस्तानान्तरण पर तो था ..मगर अपने यहाँ क्या हो रहा है उस पर कोई ध्यान नहीं था ...सरकार आतंकवाद से लड़ने में मशगूल थी विदेशी ताकतें नक्सली दीमकों को पाल रही थी ताकि वो हमें अंदर से खोखला कर सकें...उन्होंने आतंकवाद के जाल में हमे फसाकर नक्सलवाद का चक्रव्यूह रच डाला.

पर अब जब इस चक्रव्यूह को तोड़ने की बात हो रही है तो हमें इसके एक एक दरवाजे को तोड़ने की तरकीब के साथ मैदान में उतरना होगा तभी हम इस चक्रव्यूह को तोड़ पाने में कामयाब हो पाएँगे ,भूख गरीबी आवास,अशिक्षा ,बेरोजगारी,आर्थिक और सामाजिक सशक्तीकरण एवं वन अधिकार जैसी समस्याएँ आदिवासी इलाकों में पसरी हुई है ..नेता पांच वर्षों में एक बार वोट मांगने इन तिरस्कृत आदिवासियों के इलाके में जाते हैं लेकिन नेताजी का हेलिकॉप्टर और उनका भाषण तरक्की और आदिवासियों के बीच बढ़ती दूरी के अहसास हो फिर हरा कर जाता है

कहने को तो हमने अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को हर जगह आरक्षण दे रखा है मगर गणतंत्र के साठ साल हो जाने के बावजूद आदिवासी इलाकों की स्थिति जस की तस बनी हुई है न तो उन इलाकों में अच्छे स्कूल हैं न ही कालेज कुछ अगर पद लिख कर बाहर निकलते भी हैं तो प्रतियोगिता के दौर में वो पीछे रह जाते हैं इस वजह से अधकचरी पढाई करके निकले युवक को गुमराह करना आसन हो जाता है और वो इस तरह के गलत रास्ते में निकल पड़ते हैं

जिस वनाधिकार कानून को सरकार को ६० साल पहले लागू कर देना चाहिए था उसे सरकार ने २००७ में लागू किया वनवासियों का उस जंगल पर अधिकार नहीं था जहाँ वो पीढ़ियों से रहता आ रहा है वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा की गई जातियों का असर भी आज नक्सलियों के बगावत में दिखता है ये बातें मैं छत्तीसगढ़ में अपने बिताये १८ वर्षों के अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ वहां वनोपज की खरीदी के लिए सरकारी संस्थान है मगर तेंदूपता की खरीदी को छोड़ कर और किसी भी वनोपज की खरीदी सरकार द्वारा व्यवस्थित तरीके से नहीं होती है ..उसका जो फायदा सीधे आदिवासियों को मिलना चाहिए वो दलालों को मिल रहा है यही उनके आर्थिक पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है

..अगर एक घटना का जिक्र करूं तो [मेरी माँ के बताए अनुसार] सन उन्नीस सौ बयासी में छत्तीसगढ़ के जशपुरनगर में मारवाड़ी आदिवासियों को एक किलो चिरोंजी के बदले एक किलो खड़ा नमक देते थे जिसकी कीमत आज २७ साल बाद भी पांच रूपए से ज्यादा नहीं है .. तो ये शोषण नहीं है तो क्या है ?आज अगर आदिवासी बगावत पर उतर आए हैं तो उसमें क्या गलत है ? किसी ने कहा है की जब अधिकार मांगने पर न मिले तो उसे छीनना पड़ता है ..अगर अधिकार छीनने की कोशिश में आदिवासियों ने अगर हथिया उठा लिए हैं तो इसमें सरकार की ही ज़िम्मेदारी है क्योंकी सरकार उन्हें उनके हक नहीं दिला सकी और उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकी अगर सरकार वाकई कुछ करना चाहती है तो उसे एमओयू वादियों [व्यवसायिओं] की चिंता छोड़ पहले माओवादियों [आदिवासियों] के हितों की रक्षा करनी होगी .तभी ग्रीनहंट सही मायने में सफल माना जाएगा

2 comments:

  1. बेहतरीन विश्लेषण..

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  2. बढ़िया लिखा, इंट्रो देखकर ही काफी कुछ समझ में आ गया।

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